Saturday, November 13, 2010

Theater: End of an End or the Beginning of a Beginning

Theater: Meaning for world is "place for seeing". But I wonder often that what it has for people in it? The way I wonder about my being at times, in terms of "Matrooq" (Abandoned) - name of this blog, in the same way I wonder about theater. A friend asked me “Abondoned!! Who? And I said “self” who else? He wondered, how can I say that... Its a quest to find out self... but still he wonders..

Probably more than that I wonder when I am on or behind the stage. Recently I got a fortune of being in to this situation after a long time. It takes a lot before a production comes to the performance. But for those who are on the stage - it means more than what it is for a spectator. The history of theater goes long back to the Thespis of Icaria or Nātyaśāstra. So to say it goes till 200 BC with its existence and may be prior to that even, as part of the history which is not available to us. Most important thing in theater across the globe is the "Rasa" (aesthetics). Whish is presented to the spectators in different forms of on stage performances. No wonder why father of logics (Aristotle) was compelled to wrote Poetics.

There are four kinds of Abhinaya (histronics) are defined but before an actor even reaches to that stage... before the curtains are raised for the for the performer, when there is littile time left to move away from yourself rather be the one who needs to be on the stage. The feeling at this point, how does it happen, what is it feels like –

When it is at the end of an end or may be beginning of a beginning. In my words "The Magic Time" self is there but it is not... what is it... I wonder that feeling... what is it? What is that devotion which compels you to lose yourself, be the one which is not there or may be there but was never there? This can happen with extreme affection / devotion only. Probably, it is the greatest combination of all the Yóga.

Before the curtain is raised, or before the bell sought for the opening of the show... everyone at or behind stage, waits for the time with every second coming down to play their role and be off from the stage… 

It is the only place where you do not go behind your dreams but you live them. I feel that I will be alive for thousand more years to have that feeling again and again in me... Amen

Saturday, November 6, 2010

प्रेम: उलझन सुलझन उलझन...

 
चैन तकिये पर रखा तो
विषधरों ने फन उठाये
क्यूँ लिखा?
कैसे लिखा?
किसके लिए इतना लिखा?
दौड़ता हूँ मुझमें मैं 
श्वास और उच्छ्वास बनकर
मेरे जीवन क्रम पर क्यूँ उन्हें आश्चर्य इतना ?
"श्वासोच्छ्वास" तो तुम हो |
अच्छा!
हाँ |
और जो लेखनी की चाल का फलन?
"हम" हैं
और जो छूट गया लेखनी की पकड़ से?
अलिखित...
सच्चीदानन्द
और शब्द?
तुम्हारा स्पर्श
जीवन रस
लेकिन
"तुम" कोई शब्द नहीं हो
अर्थ भी नहीं हो |
एक लय
राग
छंद
सुबह
या कि मेरा होना
मेरे अकेलेपन का गीत
मेरा स्थायी पता
हर अँधेरा चुनौती देता है मुझे
क्या करूँ?
तुम्हारे दिए पर्स से
चाँद निकाल लूँ
छोड़ो
तुम ही आ जाओ
ये "तुम" क्या है?
मेरा होने कि हद
तो "हद" कितनी?
जितनी विस्मय की,
आनंद की
समाधि की... उससे भी आगे की
"तुम"
वो है जिसका शब्द नहीं है
इस दुनिया में
इस ब्रह्माण्ड के बाहर मिलना - शायद वहां मिले किसी आकाश गंगा में
किसी समाधि में
आज तो बस....
नि:शब्द
नितांत "हम"
कब तक?
जब तक की हम
उसके बाद तक भी
क्यूंकि तब "मैं" मिट जाऊँगा

Tuesday, November 2, 2010

बादल - हमारे आकाश पर आ कर टंगेंगे

क्या कभी बादल हमारे आकाश पर भी आ टंगेंगे 
या की ऊसर भाग्य रेखा देख कर ही भाग लेंगे |
फटेंगे सिर्फ ऐसे ही दिलों पर जो हमेशा कोंपलों जैसे हरे हैं
छोड़ देंगे सम्भावना के हर बीज को वो
जो पेड़ बन जाने की ताकत लिए
आशा भरी एक नींद में बस सो रहे हैं
तसव्वुर में कि
बादल - हमारे आकाश पर आ कर टंगेंगे
एक दिन हम भी बड़ा सा पेड़ होंगे
 
क्या संवेदना के मरुस्थल में भगीरथ फिर ना होंगे
जो सीख लेंगे सुप्त, दलित बीजों  कि महत्ता
सहोदर को सहोदर सा उचित सम्मान देंगे
मेहनत के पसीनों कि उफनती धार से
अपने ह्रदय से गर्व कि काई काट देंगे
 
लगी है आस मन में अब भी
कि हम नायब होंगे
मनु कि संहिता में भी कुदरती भाव होंगे
हाँ, हमारे आस पास सिर्फ इंसान होंगे

Monday, October 25, 2010

संसप्तक से मुलाकात और दुरी : और मेरा केंचुआ होना

२००१ की सर्दियों और मेरे मुफलिसी के दिनों में नेशनल मुजियम के सामने वाली चाय की दूकान पर - अपने प्रिय मित्र पांडे जी की कृपा से एक और योद्धा से मुलाकात हुई | साहब संस्कृति की दूकान में जज्बात के पानी डालते थे | एक दिन चार्म्स सिगरेट ने मुझे "संसप्तक" से मुलाकात का मौका दिया, बात दीगर है की बहाना, जनाब अंजन बाबु बने | मछलियों की खुशबु और हॉट रोल की महक के बीच से गुजर कर पहुंचे एक कमरे के स्कूल में | इसमें बस एक बल्ब था, बस बहुत कुछ "सत्या" के अड्डे जैसा जिसके सर पे एक कवर था, बेचारा बल्ब धुंए और बौद्धिक प्रकाश से दब कर अँधेरा बन गया था | पता चला की कुछ और लोग भी हैं इस दुनिया में जो अपने दो रूम वाले फ़्लैट और क्यूबिकल जिंदगी के बाहर आ कर अपनी जड़ें दूर, गहरे - जमीन  के अन्दर भेजना चाहते हैं | लगे हुए हैं लड़ने में, बड़े लोगों से, बासों से, आसपास की बेइंतेहा तेजी से जवान होती कोंक्रेट की इमारतों से, अपने आप से और तो और आखिरी सिगरेट से भी | और कमरे के अन्दर सारे के सारे खिलंदड़ बेफिक्र। बेपरवाह। अपने आप से बेखबर। सो कुल मिला के इस जद्दोजहा से बनी जिंदगी की दिवार में खिड़की रहती थी - दिखती किस्मत वालों को थी |

हमारे किराए के भी पैसे जब चुक गए तो हमने DTC से दोस्ती की ताकि ४९० की सवारी मुफ्त हो जाए | पर स्टेशन वाले दोस्त बदल गए ... और हमने जाना बंद किया | अंजन एक दिन आये और कहा - चल, सर ने बुलाया है | वहां जाने के बाद किसी ने सांस ना ली की भाई इतने दिन क्यूँ नहीं आये ? आते वक़्त दिल की धुक धुकि रेलगाड़ी बन गयी थी - क्यूंकि जेब में कौड़ी तो क्या सिगरेट भी नहीं थी की, पीते पीते हम मीना बाग़ लेन पहुचे | तभी किसी ने कंधे पर हाथ रखा, मुड़ के देखा तो देखा की तोरित सर खड़े हैं, कहा आना के लिए ये पास रख लो, और ये काम सभी बड़ों ने किया ... दिल ने मना किया तो ये कह के मुझे समझाया की तुम आओ इस लिए दे रहे हैं, और मैं आता रहा | तब तक जब तक दिल की सुनता रहा |

कुछ दिनों बाद पता चला की वो स्कूल अब पार्क बन गया है, हम सब बेघर हो गए - पर संसप्तक हारते नहीं, मरते नहीं, अजर होते हैं, वो रक्षा करते हैं, आत्मशुद्धि को बल देते हैं - अस्तु नाट्य जगत को हमेशा एक मोती मिलता रहा है | पिछले १८ सालों में कितने लोग इस लड़ाई का हिस्सा बने और आगे चल पड़े, परन्तु काम है की चलता रहा निर्बाध | कहते हैं यही दुनिया है। भारतीय दर्शन में आने-जाने की जगह है | लेकिन यह विदाई स्थूल की है। शरीर की। ज़ज्बे की नहीं | हौसले और भावना की नहीं। मौत बेबात का फसाना है। जिंदगी ही असल कहानी है | आज, संस्प्तक को जानते हुए मुझे दस साल हो गए, जैसे लगता है की कल ही मिला था अंजन से | अब भी वही जोश है | सलाम करता हूँ इस ज़ज्बे को, एक निवेदन के साथ कि "लड़ते रहिये"  |
परसाई जी कि भाषा में:

केंचुए ने सदियों के अनुभव से सीखा है कि जिन्दगी का मजा बिना रीढ़ की हड्डी के ही उठाया जा सकता है |   इसीलिए मैं आता रहा | इंसान से केंचुआ बन जाने तक | और बस |

संसप्तक से जुड़े तमाम लोगों को इंसान बने रहने के लिए धन्यवाद और बधाई |

अगर आपको इस ग्रुप के विषय में और जानकारी चाहिए तो नीचे लिखे वेब एड्रेस पर जाएँ:
 http://www.sansaptaktheatre.com/

Sunday, October 17, 2010

तरक्की



जब गुन गुनी धुप आने लगती है हर सुबह -
याद आती है धुएं से भरी गाँव की सरहद
सब कुछ ढका, छुपा सा
परिचित सा अपरिचित
एक दम नए सा वो सब जो था पुराना
मजीरों और झाल के रंग में रंगा
अपने पन से पगा
हुक्के का धुंआ
कौड़े का ताप
देता था दस्तक, एक मौसम त्योहारों का
न बिजली के लट्टू
ना टेप रेकॉर्डर का शोर
ना डी जे की सर्विस
ना टैलेंट शो का जोर
बैलों की घंटियों से झरता संगीत था
पैकेज्ड ड्रिंकिंग वाटर का कोई ना ठौर था
हर उम्र के पास अपना एक रंग था
पूर्ण था
उन्मत्त था
जीवन था
तरक्की हमने इतनी कर ली कि
आज
ह़र मोड़ पर
दिखता है
अधूरापन तमाम

Friday, October 8, 2010

कुत्ते!!!

साहब ने कहा --
कुत्ते!!!
इसके पहले की वो सुर मिलाकर कहते "कमीने" हमने बीच में ही लपक लिया
और एक प्रश्न का गोला शुन्य में दागा
कौन??
गुरु गम्भीर बोले--
सच में नहीं मालूम
हमने भी ४ करोड़ के प्रश्न के लिए दो आप्शन दिए
  1. वो जो कुत्ते हो के भी वफादार हैं,
  2. या वो जो वफादार ना हो के भी कुत्ते हैं

Thursday, September 16, 2010

तुम हो तो... मैं भी

 

आसमान या के सारी ज़मीन
समंदर या के हवा या तूफ़ान
बिखरे हैं चारों ओर
फैला के यही शोर
कि
तुम्हारे लिए ही तो हैं हम...
 
मुझे अपने आगे सभी पिद्दी समझ आते हैं
मुझे खुदाई के सपने नहीं आते हैं
 ना तो है जन्नत कि जरूरत
ना बाकि है किसी ख्वाहिश का निशान
ना बाकि है जेहन में किसी खुदा कि इबादत
 
लेकिन
पांच दिनों से
ना तो नींद
ना भूख
ना प्यास
कहाँ का आसमान?, कैसा समंदर?
मुझे तो...
'मैं' ही ना मिला
जन्नत तो दोज़ख में छुप गयी
आ जाओ
इस बियांबान को फिर से दो अपनी सांस
अपने होने का एहसास
 
क्यूंकि
तुम हो 
तो सब कुछ है...
मैं भी|| 

Wednesday, September 15, 2010

अब जब की तुम हो... पर नहीं हो



उफ़ ये दिल्ली,
ना तो शाम, ना ही रात;
चारों तरफ बस बिजली के लट्टू |
खो गई है रात,
इनके बीच
चाँद भी शायद
अब वो आशिक-ए-लैला को
मयस्सर नहीं
कोई सितारा
गिरेगा मेरी आँखों के कोटरों में
जब वो आखिरी बार बंद होंगी, तभी शायद
तब तक क्या करूँ?
ना तो दिल्ली की दीवारों में
अब
ना तो ग़ालिबन खिड़की है
ना ही कोई खुदाई
सांस लेने भर से आती है उबकाई
कहाँ गयी वो मुग़ल गार्डेन के फूलों की ख़ुश्बू?
शायद
एक्स्ट्रा प्रीमियम ने बहर दी है उनकी जगह
शाम --
रात के इंतज़ार में
लेकिन
रात से पहले ही बीती
ऐसा क्यों कर हुआ...???
सब कुछ ऐसा बदला
दिन सूरज का न रहा
चंदा की चांदनी नई नस्ल ने नहीं देखी
कितनी मुश्किल है
एक आशिक के लिए दिल्ली की ज़िन्दगी
चाँद दिखे तो ना...
तुम कैसे दिखोगे...?
नेटवर्क में कंजेशन के कारण...
कैसे बात करूँ?..
ग़ालिब
काश
आज की दिल्ली तुम्हें नसीब होती 
देखता मैं भी तुम्हारी जादूगरी
अपने आपको आधा हिन्दू, आधा मुसलमान
क्यूंकि
रोक दिए जाते जरूरतों के तंग दायरे में ---
एक चाँद
तारे
एक रात
चांदनी
हवा
थोड़ा सा सन्नाटा
एक कोई अपना |
सबसे महरूम
फिर भी एक आस बची है कि
शायद बत्ती गुल होगी
स्ट्रीट लाइटें भी अँधेरे में खो जायेंगी
तब
शायद
मैं
तुम
या फिर हम
मिलेंगे चांदनी के दोनों किनारों पर
और अचानक
साड़ी मोटरें और जेनेरेटर बंद होंगे
या खिदा
ये ख्वाहिशे आशिक
तेरी रहमत में तब्दील हो
आमीन..
कौन कहता है कि ग़ालिब अब कभी पैदा नहीं होगा
हुज़ूर - बिना चांदनी के भी चाँद
टहलता है आसमान में
आज देख भी लिया
सच है
ग़ालिब फिर नहीं पैदा होगा ||

Tuesday, September 7, 2010

गच्च गच्च आत्मा



आज सब्ज़ी की खरीद फरोख्त में टमाटरों के रेहड़ी वाले से टकरा गया. अद्भुत, अविस्मर्णीय था आनन्द जो बारिश के साथ छन छन कर कानों पर गिरा. "अरे अभी एक गिराहक आया था, बोला भाई तरी वाली सब्जी के लिए टमाटर चाहिए बढ़िया वाले वो भी चालीस किलो. राम कसम मेरी तो आत्मा ही गच्च गच्च हो गयी ". हमने भी सुर मिलाया इस आत्मा की गच्चता में की "आज के आनन्द की जय हो".

तो बात थी आत्मा की
जो की बीसवीं सदीं में
होर्डिंग्स के होड़ में
जूतों के जोड़ में
अंग वस्त्रों की गाँठ में
बन्दूक की नाल में
तबलों की ताल में
जवानी की अंगड़ाई में
सड़क पर उगी खाई में
दिन के अंधेरों में
और रात के उजालों में
उपलब्ध है - आपके शहर में
मेरी आत्मा - गच्च गच्च आत्मा

आपके शहर में
एक पर एक या फिर एक के साथ दो
या फिर किसी और के साथ
बिना किसी जज़्बात
दिन हो या रात
लुटने को
नहीं नहीं - लूटने को उपलब्ध है
मेरी आत्मा -- गच्च गच्च आत्मा

Sunday, September 5, 2010

धूल



बारिश ने ज़िन्दगी को दी थोड़ी सी हूल है

पर क्या होगा आदम वल्द खुदा का जब दिल में बस गयी सिर्फ धूल ही धूल है

हर एक मूंछ के बाल से, तहज़ीब की तलवार से, ताज्ज़ुर्बे की झुर्रियों से
जवानी के बल से, मतवाली की मुस्कान से, रत जग्गों के शोर से,
चहुँ दिस झरती जाती है
रोके से ना रुक पाती है
जाने किस मुए की जवानी है, जिसमें बचा नहीं थोड़ा भी पानी है

क्या बताऊँ भाई अब मिलते नहीं यहाँ मस्ती के फूल हैं
तभी तो इतनी मस्त बारिश के बाद भी पत्तियों पर धूल है
पुरन्दर का भी हौसला पस्त है
क्यूंकि घनघोर वृष्टि में भी कीचड़ साला पेड़ के ऊपर मस्त है