Sunday, May 15, 2011

रंग

रंगों से पगे रसीले गाल
क्या फिर मिलेंगे मेरे होठों से अगले साल
 रंग की भंग में, या भंग के रंग में
किसने डाला सच्चिदानंद का बवाल
बाबा की बूटी सर चढ़ कर बोली
अबके बरस होली में
जियेगा तू जवानी के सौ साल
 
चिर कुंवारा मन (तन तो कब से नहीं है - कुंवारा)
बुनने लगा है चाल
कैसे होली मचाएगा गोपाल
बच ना सकेगा एक भी भाल
जब उड़ेगा भर मन गुलाल
ऐसा रंग होगा कमाल
रंग देगा हर एक मलाल
भाल
कपाल
और
छूटेगा नहीं
तन छूट जाए भले ही इस साल

Saturday, May 14, 2011

यादों की दस्तकें बार बार सीने पे गिरती हैं
 वक्त मुड़ मुड़ के घुस जाता है दिमाग की कोशिकाओं में
 
दिल हर बार ये तय कर लेता है कि
एक जिन्दगी में एक बार पैदा होना और एक बार मरना जरूरी नहीं होता
 
बार बार कि रट, दोबार पाने कि चाह
 
फिर से लौटूंगा
फिर खो जाऊँगा
मरने के लिए जिऊँगा
और जीने के लिए मर जाऊँगा
 
फिर लिख दूंगा
तमाम सदियाँ
 
लगाऊंगा नई आग
लिखूंगा नया इतिहास
दस्तकों को सुर नये सिखा दूंगा