Sunday, December 7, 2014

कूड़ा

शुरुआत करामाती हुई:

बहुत पहले कहीं पढ़ा था की पाकिस्तान के एक कवि ने भारत यात्रा करनी चाही । पाकिस्तान में पासपोर्ट फॉर्म भरना था, फॉर्म पर जन्म का स्थान हिंदुस्तान लिख दिया । पासपोर्ट अधिकारी ने कहा की ये फॉर्म गलत भर दिया है आपने, दुरुस्त कीजिये, आपका जन्म स्थान पाकिस्तान है। उन्होंने अर्ज़ किया, जनाब, ये मुल्क तो हमारी पैदाइश के बाद का है, हम तो हिन्दुस्तान में पैदा हुए थे|
राष्ट्रभक्ति का कोई मुगालता नहीं था शुरूआती दौर में शायद । अब देखिये एक नया धंधा शुरू किया दोनों तरफ के हुक्मरानों ने, जब जनता विकास की उम्मीद में सवालों के गोले दागती है, ठीक उसी समय पडोसी मुल्कों से आतंकी हमले, दोनों देशों में होने लगते हैं | सवाल पीछे रह जाते विकास का, बस बचता है राष्ट्रप्रेम का नशा | अफीम से भी ख़तरनाक |
फिर इस कुर्सी बचाने के अभियान वाली नेताई मज़बूरी में जब आम जनता फंसती है, तो उसे बस यूज़ एंड थ्रो टाइप प्रयोग करके, गाहे बगाहे माइलेज लेने के लिए याद किया जाता है, और अगर मर जाए जनता तो? शहीद बना दो| सस्ता सुन्दर टिकाऊ जुगाड़ । है किसी में हिम्मत की राष्ट्रप्रेम, शहादत पर कोई सवाल करे दोनों मुल्कों में?
जब कोई बड़ा घोटाला हुआ तो उसी समय, कभी कारगिल हुआ, तो कभी नचिकेता हुआ, तो कभी सरबजीत हुआ | चुनाव नज़दीक आये तो अजमल क़साब हुआ, अफज़ल गुरु हुआ, सरबजीत हुआ | अब वो मर गया है भाई, आओ उसे शहीद बनाकर, राष्ट्र को नतमस्तक कराकर (हमारी राष्ट्रभक्ति से ofcourse) धीरे से गद्दी पे बैठ लें | इन लोगों का क्या, कब रोटी कपडा और मकान पे सवाल करने लगे हमसे|
बकौल परसाई साहब - नेता का "ता" खो गया है, बचा सिर्फ "ने" है| बनिये ताले का "ता " देंगे नहीं, क्यूंकि उनके पास सिर्फ "ले" बचेगा, तो इन लोगों ने जनता का "ता" ले लिया है, शहीद बनाके, अब बचा सिर्फ जन है| कभी जानवरों के झुण्ड से कोई शिकारी डरा है, जो आज लोगों के झुण्ड से डर जाए।

बस यहीं कूड़ा गया:

Surya Singh: मैंने आपसे कितनी मर्तबा कहा है कि मेरे भी शहीदी की अगर आप बात उठाते। कम से कम दो-तीन शहीदी तो अपना भी बनता है भाई। राजनीति तो चलती रहती है जनता का क्या है घास है, जिधर फ़ेंक दो उठ कड़ी हो जाती है। लेकिन आप कृपया मेरे शहीदी पे मौन न फरमाए। बड़ी नाइंसाफी होगी। 
कहिये तो अपनी मृत्यु प्रमाण पत्र भी जमा करवा दूँ। अस्पताल वाली भी और जिस घाट मुझे दफनाया गया वहां के प्राधिकारी का भी अधोहस्तान्तरित प्रतिलिपि मैं पेश कर सकता हूँ सबूत के बतौर।

Om Abhay Narayan Rai: गलती तो भयानक है हमारी इसमे, कुछ कीजिये की हम सत्ता में आयें तब आपकी शहादत पर फोकस बनाए | 

अभी इस बार की छुट्टी में अलग अलग तबके के लोगों से मिला | आपकी की बात से कुछ बातें याद आयीं | एक कब्र के पास बैठा थोड़ी देर, वहां एक पेड़ था इस वजह से, पडोसी मुसलमान हैं, उन्होंने बताया की ये एक "शहीदी" की कब्र है| मैं थोडा हैरान हुआ, की मुझे क्यूँ नहीं पता, तब उन्होंने राज़ खोल, ये भाई स्कूटर टैक्सी एक्सीडेंट में शहीद हुए थे| वैसे ही हर गाँव में जहाँ हिन्दू हैं, मिटटी के बड़े बड़े चौरे बने हैं, बरम बाबा (ब्रह्म बाबा ) के लिए| कोई अगड़ा आकस्मिक मृत्यु का शिकार हो तो ब्रह्म बन जाता है और मुसलमान शहीद हो जाता है| जहाँ सरकारें फेल हों, वहां पंजाबी शहीद हो जाता है| जहाँ सरकारी व्यवस्था और प्रबंध फेल हो वहां ठाकरे लोगों को राजकीय सम्मान से निपटाया जाता है
रंग लाती है हिना, पत्थर पर घिस जाने के बाद 
शुर्खुरु होता है इंसा ठोकरे खाने के बाद .... (इस लाइन में तबदीली है)
शहीद होता है इंसा कुत्ते की मौत मर जाने के बाद

Surya Singh: तेरी वफ़ा में सनम, न सफ़र के रहे न वतन के रहे।
बिखरी लाश के इतने तुकडे हुए, न कफ़न के रहे न दफ़न के रहे।।

तो ये जो देशभक्ति सनम-हरजाई है वो मेरे पल्ले पड़ हीं नहीं पाती। लेकिन कुछ चीजें तो आपको भी साफ़ साफ़ दिख रहीं होंगी। पिताजी बोलते हैं वह दारु पीके मदहोशी में हदें पार कर गया था, हुक्म्रानें मानती हीं नहीं। ये तो शहीद है भाई। इसने कुछ इंसानों को मारने में, बम बारूद फोड़ने में, प्रकृति को नष्ट करने में किसी न किसी तरह (चाहे मार के चाहे मर के) काम आया। 

जहाँ तक बरम बाबाओं का सवाल है, वे मरे नहीं मारे गए हैं। आपको मालूम ही होगा की मंदिर और बरमों के नाम पर इस देश में करोड़ो-करोड़ एकड़ जमीन पर किसी ख़ास जाती के लोगों ने किस तरह कब्ज़ा कर रखा है जिसका मालगुजारी भी वे नहीं चुकाते। और अधिकतम जमींन किसी-न-किसी की लाश पर हीं खड़ी हैं।
और जहाँ तक मरने का सवाल है. पुरान नहीं पढ़े हैं क्या। मरना एक अनुभव नहीं अनुभूति है। अगर मैं मान रहा हूँ की मैं शहीद हुआ. मेरी मृत्यु प्रमाण पत्र भी अगर जमा करने को तैयार हूँ, गवाह भी मौजूद हैं तो आप अगर यकीं नहीं आता तो जांच आयोग, इन्क्वायरी बैथायिये आप सीधे सत्ता की सौदा कैसे कर सकते हैं। ये तो वोट के बदले नोट वाली बात हो गयी। अरे मैं किसी को भी वोट नहीं दूंगा, आपके खिलाफ कुछ नहीं बोलूँगा, कोई नौकरी नहीं चाहिए मुझे, किसी तरह की कोई सब्सिडी कोई भत्ता भी नहीं मिले मुझे। किसी धरना प्रदर्शन किसी प्रोटेस्ट में कभी कहीं नहीं जाऊंगा, वादा है । और किसे मरना कहेंगे। शहीदी दिला दीजिये मैं एक मर हुआ हीं इंसान हूँ। ये तो मैं नहीं लिख या बोल रहा, ये तो मेरी रूह है जो अपने हक़ के लिये लड़ रहा है।

Om Abhay Narayan Rai: ये मुझे सत्ता में ना आने देने की कवायद पर:

तू है हरजाई तो अपना भी ये तौर सही
तू नहीं और सही, और नहीं, "और" सही |
बाकी रहा राष्ट्रवाद, इसमें मैं कुत्ते और आदमी की नियत में कोई अंतर नहीं देख पाया, सिवाय इसके की कुत्ता एक गली का मालिक होता है| 
रहा आपका मरना, मुसद्दी आज तक घूम रहा है ये बताने को की मैं जिन्दा हूँ| गोंडसे ने गाँधी को इसलिए मiरi की वो उनकी लाश को राजनैतिक गलियारों में घिसटते हुए नहीं देखना चाहते थे| मतलब जे की बड़ा उलट पुलट है, जो जिन्दा है उसे अपने जिन्दा होने का प्रमाण देना है, और जो मर गया है उसे फिर से मार देना है, और इसके बाद शहादत का खेल, राजकीय सम्मान का ताज।।। सूर्या भाई, इंतज़ार करो, एक दिन तुम्हें मरानोंपरांत मारने के बाद शहादत कर रंग लगाऊंगा इस राष्ट्रभक्त जनता के भाल पर
कागज पर मरना भी कोई मरना है सूर्या भाई, वैसे भी चौरा अगड़ों की मौत पर ही बनता है, मेरे हाथ में अगर सत्ता न आई तो यकीन मानिये, आपकी शहादत कोई रंग नहीं ला पाएगी। ये कुछ कुछ हिना जैसा मसला है:

Surya Singh: भूतों और रूहों के लिए भी एक आप्शन होना चाहिए भारत सरकार के चुनाव पत्रों पर। उनको भी वोट देने का अधिकार दिलाना होगा नहीं तो तुम कभी जीत नहीं पाओगे कसम से


Om Abhay Narayan Rai: भाई हमने वोटर लिस्ट चुन ली है, सिर्फ मर हुए लोग हैं उसमें, और उनका नेता मैं, अकेला जो जिन्दा है

कुछ बाकी है



मेरी खाँसी
और तुम्हारा मुझे याद करना
कब धुएँ के हर कश के साथ
दोहरे होने लगे
जैसे तुम्हारे ख़तों का आना
उँगलियों में उँगलियों का होना
या हाथों में सिमट जाना हाथ
मेरा वजूद पिघल पिघल के
गंगा के पानी सा
सिर्फ हाथ में सिमटा
जो तुम्हारी हथेली के नीचे
पर
सूंस सा पलटता - उफनता
मेरे वजूद को
अब बस खाँसी आने पर
पता चलता है कि
तुम्हारे याद करने में ही
बस कुछ बाकी है

ख़ाली ख़त



और फिर एक दौर चला
ख़ाली ख़तों (SMSs, e-mails) का
शायद मज़मून जानती थी
एक तरफ़ा ख़ाली ख़त थे 
और उधर से बोलती आँखें 
जो सिर्फ बन्द आँखों को सुनाई देती थी
हमेशा सुनने की कोशिश में
आँखें मींचे पड़ा रहता
मुर्दों सा
मगर ज़िन्दा
धड़कता हुआ
मगर ख़ाली