बच्चे सो गये हैं
बहुत गहरी नींद में
अब कभी नहीं उठेंगे, ना फिर कभी उनकी शरारतें हमारे दिल को गुदगुदाएँगीं।
एक ऐसी नींद जो हर दो घण्टे पर थोड़ा और दूध पी लेने के लिये टूट जाती, वो नींद अब इस क़दर तारी है कि वो ना किसी मन्दिर के नाफूस की आवाज़ से टूटेगी और ना बी मुक़द्दस मस्जिद की अजान से।
बरसात में माँओं को सबसे ज़्यादा फ़िक्र बारिश से बच्चों के बचाने की होती है।वो माँएं जो अपने बच्चों के बेहतर स्वास्थ्य ते लिये अपने बच्चों को हस्पताल लेकर आयी थीं - अब सो चुके बच्चों को कभी जगा नहीं पाएंगी। शायद - बढ़िया क़ब्रों तक बारिश का पानी नहीं पहुँच पाएगा।
ये बच्चे वतन की राह पर शहीद नहीं हुए हैं, क्यूँकि शहीद तो देश के लिये क़ुर्बान होते हैं। मुल्क शहीदों की इज़्ज़त अफ़्जाई करता है, उनके एहसान-ओ-करम के बोसे लेता है। बेऔलाद हुई माँओं के पास ये तसल्ली भी नहीं कि उनके बच्चे देश के लिये क़ुर्बान हुए।
शायद एक या दो दिन में हंगामाखेज मीटिंग होगी, फिलवक्त तो अगस्त में साल दर साल बेमतलब मर जाने वाले बच्चों के सिर गिने जा रहे हैं। ऐसे समय में सिन्हा जी मूर्ति का अनावरण करते हुए स्वागत की फूल मालाओं से दबकर दुख से मुस्कुराते दिखते हैं, उमा और योगी जी इस बेमिसाल गम की घड़ी में भोग की थाली के गिर्द बैठे प्रचण्ड जनमत विजय जनित मुस्कान के साथ दुखी दिखते हैं। कोई शास्त्री जी जवाबदेही की नई परिभाषाएँ गढ़ रहे हैं, पुराना जवाबदेह मरहूम शास्त्री वैसे भी कांग्रेसी था - ६० साल के पतन मार्ग का एक नेता भर।
अब इस मसले पर जाँच होगी, किस बात की जाँच होगी - यह भी जाँच का विषय है। योगी जी, उत्तर प्रदेश सरकार ने कह दिया है कि बीमारियों के चलते बच्चे सो गये। शायद जाँच हो रही है, या होने को है या हो ही जाएगी। शायद एक मीटिंग हो रही हो - जिसके पहले राष्ट्रगान गाया गया होगा, ख़त्म होने तलक वन्दे मातरम भी गाया जाएगा, जो इन बच्चों के गाढ़ी नींद में जाने से रोक लेता। शायद इन बच्चों की आत्मा की शान्ती के लिये दुआ भी माँगी गई होगी।
बच्चे की रूह को शान्ती की क्या ज़रूरत होगी? उनके लिये माँगी गई दुआओं के क्या मानी हैं? कुछ तो बेचैनी होगी उनमें जिसे शान्त होना चाहिये । शायद माँ की छाती से एक बार और पेट भर दूध पीने की चाहत रह गई हो, या बचपन के खेल "किसके बेटा हो - माँ के या पापा के" वाले खेल एक से बोसे और तोहफ़े की खातिर दूसरे को नज़रअन्दाज़ किया हो। लेकिन ख़बरों में आया कि ऑक्सिजन ख़त्म हो गई थी, शायद किसी बच्चे ने अपने पूरे फेफड़े पर साँस लेने की चाहत पूरी की हो।
ऐसे समय में जब हम सब श्मशान, क़ब्रिस्तान और प्रखर हिन्दू राष्ट्र बनाने न बनाने के खेमों एकजुट अपनी ताक़त बढ़ा रहे हैं, शायद कुछ क़दम फ़ेसबुक के बाहर रखेंगे। बहुत सा मुहब्बतों, ढेर सारे फूल, जलती मोमबत्तियों और दिलों में दर्द लिये सेल्फी खींचते खिंचाते सबकुछ इन से चुके बच्चों पर वार देंगे। बस कुछ दिनों की बात है, भोपाल से लेकर व्यापम तक, मध्य प्रदेश से लेकर बिहार, झारखण्ड उड़ीसा यूपी और पूरे मुल्क में मौतें होती रही हैं, फिर सब कुछ वैसा ही हो जाएगा, जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं था, ये तरीक़ा हज़ारों सालों से हमारी मिल्कियत है। इसमें हमारे प्रिय नेताओं के यशगान, भगवान की इच्छा, खुदा की चाहत और वाहे गुरू की मेहर के अलावा किसी और का कुछ भी नहीं होगा। मौत पर किसका जोर है? सिवाय एक उसके!
इन सारे पचड़ों में हम खोज कर लाएँगे कि इस गहरी नींद के पीछे के कारणों में २५० साल की ग़ुलामी (कुछ इसे ५५० साल भी कहेंगे), पुरानी सरकारें, कोई नेहरू, कोई जयचन्द कोई अखिलेश, या फिर कोई बिज़नेस एजेन्सी या फिर सबसे अच्छा चेक एन्कैशमेण्ट में देरी - कारण है। डिजिटल इण्डिया कहाँ बन रहा है पता नहीं।
एक बच्चे को साँस लेने के लिये किस "कारण" की ज़रूरत होगी? हम जल्दी ही भूल जाएंगे कि ये बच्चे हस्पताल ठीक होने आए थे, ठिकाने लगने नहीं। हमारी सारी नेक नियती का शानदार हीरो एक अकेला डा॰ क़ाफ़िल रहेगा। क्यूँ किसी डाक्टर को अपने एटीएम से पैसे निकालकर लोगों से मदद / भीख माँगकर सांसें जुगाड़नी पड़ीं? यह एक ज़बरदस्ती दिया गया निर्वाण / सुपुर्द ए ख़ाक करने का मन्जर है। इसमें ईश्वर / खुदा का कोई योगदान नहीं है। लेकिन सबकुछ ऊपर वाले का किया धरा मान लेना लाचारी / मजबूरी है, उसकी मर्ज़ी नहीं।
परन्तु हमें तो जल्दी है, हर बात की जल्दी है - पढ़ाई, नौकरी, तनख़्वाह, सफलता, अच्छे दिन, कैशलेस इकॉनॉमी, राम मन्दिर और वन्दे मातरम गाने की, इसलिये मुद्दों की तह तक जाना, उनके ठीक होने की मांग करने बहुत बड़ी ज़्यादती है। क्योंकि इसमें समय चला जाता है। मातम मनाकर घर लौट जाना बेहद आसान, इकॉनॉमिकल और सरकारी पसन्द के माफ़िक़ है।
मेरा दिल अब भा मानने को तैयार नहीं है कि कोई इन्सान इतना पत्थर दिल हो सकता है कि जब उसे पता हो कि उसकी चेक पर बनी दस्तखत से जानें बच सकती हैं, एक नॉब को घुमाने से सांसें चल सकती हैं - फिर भी वो उन्हें नहीं छुएगा नहीं। क्या हम ऐसे इन्सानों के वुजूद को मानते हैं?
इक हवस है - बेहतरी की, बिल्कुल वैसे ही जैसे साल दर साल मशीनों को बेहतर बनाया जाता रहा है। ये मामला रोटी कपड़ा और मकान से बहुत दूर निकल गया है और अटक गया है धर्म पर, अंग्रेज़ों में हमारे बारे में हमसे बेहतर समझ थी।
मुख्यमन्त्री ने उस हस्पताल का दौरा भी किया था, प्रखर नेतृत्व और भारी जनसमर्थन की जीत में बेहतरी की आशाएँ दूब की तरह बढ़ रही हैं, बेहया की तरह फिर से हरी हो रही हैं। गुज़ारिश है कि आप आवाम को समझाएँ की वो अपनी उम्मीदें कम करें, लेकिन खुदा के वास्ते उम्मीदों को तोड़िये मत, कम भले कर दीजिये। उम्मीदों को उनकी ज़मीन दिखाने का ये तरीक़ा जानलेवा है।
हमने दुनिया को सैटेलाइट, परमाणु ऊर्जा, गोपालन व गोरक्षा, बीफ एक्सपोर्ट, सर्जिकल स्ट्राइक, शल्य चिकित्सा और अनेकानेक क्षेत्रों में अपने वुजूद का एहसास डंके की चोट पर करवा दिया है। असंभव दिखने वाले एफ़डीआई, जीएसटी, नोटबन्दी पर सफल कार्यान्वयन किया है - ऐसा मोदी जी का मानना है। क्या हम ईलाज के लिये हस्पताल जाने वाले बच्चों को फेफड़े भर साँस मुहैया कराने के बारे में कुछ कर सकते हैं?