वो बचपन के कुछ साल
जो पलझपकते पीछे चले गए
सुकून भरे थे
कर्बला और ईदगाह दोनों के रास्ते
हमारे घर को छू कर जाते थे
हर साल
बिना नागा
सब कुछ खो जाता था - सुकून और ईमान में डूबी
पाकीज़ा खुशबु से
रज्ज़ाक खां के सबसे बड़े बेटे
मन्नू चा
ईद की नमाज़ के तुरंत बाद -
इत्र की खुशबु से
सारे रास्ते को गमगमाते आते थे हमारे घर
वो पान में महकी, पीक सँभालने को हुई हल्की तिरछी सी हुई जुबान
बुलाती थी हम सब बच्चों के नाम
जान हथेली पर ले कर, हर एक हवाई जहाज़ बनके
दौड़ता था, हर प्रतिद्वंदी से आगे निकलता था
उन ३ करारे एक दम नए छपे
कड़क
साफ़
एक रूपए के नोटों के लिए
शेरवानी की हर जेब से अलग - अलग
सेट में निकलते थे बाहर
एक जोरदार आवाज़ पुकारती थी पीछे छूट जाने वाले को
"हई ल हो बबुआ - ईदी ले ल आपन"
हर तीन रूपये की एक ही शर्त थी
गोद में चढ़ के गले मिलने की रस्म अदाएगी
और सबसे बुरी बात (जो सिर्फ मुझे लगती थी)
इत्र में डूबा एक रुई का टुकड़ा
रगड़ खाता हमसे और कान में साध दिया जाता
एक अरसा बीत गया
देखे सुने
इतना हरा सा
प्रेम में पगा सा
दिल में लगा सा
ईदी देने वाला
ये सच है कि
बचपन एक ऐसा दौर था
तब ईदी का ही हमारे ज़ेहन पे जोर था
आज भी है
अव्वल बात है - कि अब ऐसे एक रुपये के नोट नहीं मिलते
मिल भी जायेंगे
पर क्या बताएं
मन्नू चा नहीं मिल पायेंगे - अचानक खुदा के प्यारे हो लिए
अब तक हूँ इंतज़ार में
क्या आसमानों का इरादा है - उन्हें फिर
ईदी देने के लिए फिर से भेजने का?
हमारी अगली पीढ़ी कितनी गरीब हो निकली
क्यूंकि जनाब
हमारी तरह उन्हें मुहब्बत से भरी
ईदी जो नहीं मिलती है