Saturday, September 24, 2011

Parting Words


From: Om Narayan Rai
Sent: Friday, September 23, 2011 5:22 PM
Subject: Parting Words

Dear All,

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Putting Rabindranath Tagore's Parting Words - 

When I go from hence
let this be my parting word,
that what I have seen is unsurpassable.

I have tasted of the hidden honey of this lotus
that expands on the ocean of light,
and thus am I blessed
---let this be my parting word.

In this playhouse of infinite forms
I have had my play
and here have I caught sight of him that is formless.

My whole body and my limbs
have thrilled with his touch who is beyond touch;
and if the end comes here, let it come
---let this be my parting word.

Regards,
Om

Wednesday, September 21, 2011

तरक्की - भाग दो

अब जब के पैर छूना
घुटनों तक आ गया है
सलाम - सैल्यूट में बदल गया है
 
दुनिया की सबसे बड़ी आबादी
भूखों और नंगों की
हमारे घर का हिस्सा है
 
हम विकास की गाड़ी में
हाई स्पीड पेट्रोल डलवा कर
तेज रफ़्तार जिंदगी के मजे ले रहे हैं
 
दादी के ज़माने का कानून
एक मुट्ठी अनाज हर रोज़ पकाने से पहले हर रोज़ बचाने का दस्तूर
खो गया है पिज्ज़ा की खुशबु में
 
अब घुटने छिलने पे हम वो मिट्टी नहीं लगाते
जिसके स्वाद को हमारा बचपन आज तक नहीं भुला है
अब नए ज़माने के वाइरस हमें मजबूर करते हैं
 
बच के रहने के ढंग सिखाते हैं
ये कब बन गए हमारे आस पास
ये रहस्य अद्वैत वाद के सिद्धांत से  भी गूढ़ है
 
अब ठहाके असभ्यता की निशानी है
मुंह में राम बगल में छूरी 
इस कॉर्पोरेट संस्कार के हम अभिमानी हैं
 
जुल्म तो ये है की
जो मच्छर एक ज़माने में आवाज़ कर के काटते थे
उन्होंने ने भी तौर बदल दिया
वो मर्दों वाली बात बंद कर दी है
(आवाज़ करके हमला करने आदत)
बदल दी है
 
आज कल चुप चाप आते हैं
आत्मघाती उग्रवादियों की तरह
और डाल जाते हैं हमारे खून में अविश्वास का जहर

Saturday, September 10, 2011

बेनाम

डलहौजी के नक़्शे पे घोड़े दौड़े तो
वतन भूल गया भाई बंदी को
मोहब्बत की तरन्नुम डूब गयी अँधेरे में
उस रोज़
जब बाऊ जी के साथ मन्नू चा गए थे दिमागी चट्टी की सैर पर
हम इमरती की आस में
जोश-ए-बुलंदी के आसमान तक पहुँच गए
लौट के बाऊ जी ही आये
सुना मन्नू चा नहीं आये
एक नया मुल्क बन गया है 
पुश्तैनी मुल्क में
महीनों बाद राहत मिली - ईदी के घाटे का दर्द से
की मन्नू चा हिन्दुस्तान के (अन्दर से) बाहर नहीं गए
ईदी मिलती रही बदस्तूर
इक रोज़
रमज़ान के महीने में
मन्नू चा को ख़ुदा ने तलब कर लिया
(ये ही बात बताई थी बाऊ जी ने)
रज्ज़ाक खां के बेटों ने सारी विरासत बाँट ली
हम सालों तक हर ईद पर
इस उम्मीद से बैठे रहे
के शायद उनमें से किसी ने
हमें तीन रुपये की ईदी देने की रस्म
अपने हिस्से में ली होगी
भरोसे का भरोसा
टूट ही गया
जब हम ईदी तो दूर
सिवैयों से महरूम हुए
बाउजी बुक्का फाड़
ज़ार ज़ार रोये
मुख्तार के भतीजे
आये थे घर के दरवाजे तक
कहते थे की आपके घर का दरवाजा
ताज़िया के रास्ते में आता है
सामने गुफरान मास्टर के नए बने घर के बुर्जों से कोई दिक्कत नहीं थी उन्हें
हमारा रज्जाक खां के जमाने का घर
अब कर्बला के रास्ते के बीच आने लगा है
वकील साहब (बाउजी)
जो लड़ गए थे मस्जिद की जमीं के लिए मुकद्दमे
कई किश्त आज दर्द से रो भी ना पते हैं
शायद
अकेले में हिन्दुओं के मोहल्ले में घर खोजने जाते हैं
पर हमारा दिल आज भी
बैठा है इस आस में
मन्नू चा की ईदी और
उनकी खुशबु की बास
मिलेगी कभी
 
बाउजी कहते हैं
जब राम जी बोलिहें ता परलोके भेंट होई
राम कसम
हम भी रोज कहते हैं
हे राम
मुझे भी परलोक बुला लो

Wednesday, August 31, 2011

ईदी

वो बचपन के कुछ साल
जो पलझपकते पीछे चले गए
सुकून भरे थे
कर्बला और ईदगाह दोनों के रास्ते
हमारे घर को छू कर जाते थे
हर साल
बिना नागा
सब कुछ खो जाता था - सुकून और ईमान में डूबी
पाकीज़ा खुशबु से
रज्ज़ाक खां के सबसे बड़े बेटे
मन्नू चा
ईद की नमाज़ के तुरंत बाद -
इत्र की खुशबु से
सारे रास्ते को गमगमाते आते थे हमारे घर
वो पान में महकी, पीक सँभालने को हुई हल्की तिरछी सी हुई जुबान
बुलाती थी हम सब बच्चों के नाम
जान हथेली पर ले कर, हर एक हवाई जहाज़ बनके
दौड़ता था, हर प्रतिद्वंदी से आगे निकलता था
उन ३ करारे एक दम नए छपे
कड़क
साफ़
एक रूपए के नोटों के लिए
शेरवानी की हर जेब से अलग - अलग
सेट में निकलते थे बाहर
एक जोरदार आवाज़ पुकारती थी पीछे छूट जाने वाले को
"हई ल हो बबुआ - ईदी ले ल आपन"
हर तीन रूपये की एक ही शर्त थी
गोद में चढ़ के गले मिलने की रस्म अदाएगी
और सबसे बुरी बात (जो सिर्फ मुझे लगती थी)
इत्र में डूबा एक रुई का टुकड़ा
रगड़ खाता हमसे और कान में साध दिया जाता
एक अरसा बीत गया
देखे सुने
इतना हरा सा
प्रेम में पगा सा
दिल में लगा सा
ईदी देने वाला
ये सच है कि
बचपन एक ऐसा दौर था
तब ईदी का ही हमारे ज़ेहन पे जोर था
आज भी है
अव्वल बात है - कि अब ऐसे एक रुपये के नोट नहीं मिलते
मिल भी जायेंगे
पर क्या बताएं
मन्नू चा नहीं मिल पायेंगे - अचानक खुदा के प्यारे हो लिए
अब तक हूँ इंतज़ार में
क्या आसमानों का इरादा है - उन्हें फिर
ईदी देने के लिए फिर से भेजने का?
हमारी अगली पीढ़ी कितनी गरीब हो निकली
क्यूंकि जनाब
हमारी तरह उन्हें मुहब्बत से भरी
ईदी जो नहीं मिलती है

Tuesday, August 30, 2011

हे मानस के राजहंस!!



हे भारत के जन मानस
प्रभु के सबसे प्रिय बालक
हे  निति धर्म के प्रखर दीप
हे पुण्य कर्म ध्वज के वाहक
हे राष्ट्र प्रेम के प्रखर तेज
 
तुम क्यूँ रूठे हो नैतिकता से
अपने अन्दर के नर पिशाच
क्यूँ ढक लेते हो सज्जनता से
आ जाओ कभी आवरण उतार
दिखलाओ अपने दन्त विकराल
 
कभी सत्य का पान कर
उन्नत कर लो काजल सा भाल
एक बार तो बतलाओ
तुमसे न बड़ा कोई घातक
कोई और नहीं बस तू ही है
इस भारत कुल का घालक
 
तू मिथ्याभाषी, व्यभिचारी, अत्याचारी तुम ही अरे !
 
ये भीख,
कटोरे में तुझको "इमानदारी" की क्यूँ चाहिए
तू जाग जरा, सुन अपना मानस
क्या धरा है औरों की बातों में
 
प्रसव वेदना को सह कर जब
इस जीवन को तू जी पाया
जननी से सीखा अमर प्रेम
फिर तू समाज में चल पाया
दर्द जनित हर क्रंदन को इस दुनिया में तू ले आया
हर बार दर्द के बदले में तुने निश्छल एक मन पाया
क्या सह ना सकेगा अरे कभी तू पीर कभी सच्चाई की?
और भला क्या देगा तू बदले में पीर पराये की 

Sunday, August 28, 2011

स्वर्ग और नर्क

स्वर्ग
सभ्य समाज का स्वप्न,
नर्क
पातकी का जीवन
सभ्यता की शर्त
ब्रह्म
धर्म
संयम
जीवन
आचार, व्यवहार, समाज में शाख़
नियमों की सांस में ढल कर
सच्चाई के मुखौटों में छुपकर
रोज़ सही किये जाते हैं हमारे मनवंतर
 २५० साल की गुलामी जीकर
आज भी डर में जी कर
एक स्वर्ग की आस पीकर
गुलामी की मौत के बाद भी
हम जीते हैं वो ही ख़्वाब, खुद से लड़कर
जो दलित नहीं हैं
कोमल इच्छाओं से जनित नहीं हैं
क्यूंकि नियमों से हुए जो दूर
स्वर्ग से स्खलित हो जाते हैं हुजूर
 
पातकी हर रोज़ नर्क में मदमस्त है
क्यूंकि पहले की ही तरह यहाँ नियम कानूनों ध्वस्त हैं
इसकी श्रेणी को और नीचे गिराया नहीं जा सकता
क्यूंकि लोकतंत्र की सीधी में कुछ बाकी नहीं बचता

Sunday, May 15, 2011

रंग

रंगों से पगे रसीले गाल
क्या फिर मिलेंगे मेरे होठों से अगले साल
 रंग की भंग में, या भंग के रंग में
किसने डाला सच्चिदानंद का बवाल
बाबा की बूटी सर चढ़ कर बोली
अबके बरस होली में
जियेगा तू जवानी के सौ साल
 
चिर कुंवारा मन (तन तो कब से नहीं है - कुंवारा)
बुनने लगा है चाल
कैसे होली मचाएगा गोपाल
बच ना सकेगा एक भी भाल
जब उड़ेगा भर मन गुलाल
ऐसा रंग होगा कमाल
रंग देगा हर एक मलाल
भाल
कपाल
और
छूटेगा नहीं
तन छूट जाए भले ही इस साल

Saturday, May 14, 2011

यादों की दस्तकें बार बार सीने पे गिरती हैं
 वक्त मुड़ मुड़ के घुस जाता है दिमाग की कोशिकाओं में
 
दिल हर बार ये तय कर लेता है कि
एक जिन्दगी में एक बार पैदा होना और एक बार मरना जरूरी नहीं होता
 
बार बार कि रट, दोबार पाने कि चाह
 
फिर से लौटूंगा
फिर खो जाऊँगा
मरने के लिए जिऊँगा
और जीने के लिए मर जाऊँगा
 
फिर लिख दूंगा
तमाम सदियाँ
 
लगाऊंगा नई आग
लिखूंगा नया इतिहास
दस्तकों को सुर नये सिखा दूंगा