Thursday, March 22, 2012

क्यूँ

सालों तक ये पूछ पूछ कर
हमने सबको तड़पाया था

की रात क्यूँ काली
दिन क्यूँ गोरा
आस्मां में बादल क्यूँ हैं
चाँद हमारा मामा क्यूँ है

हर मतवाली मौसी क्यूँ है
हर खूसट अब बुआ जी क्यूँ है
हर मंगल पर दंगल क्यूँ है
दंगल ही का मंगल क्यूँ है

दनवा दूत का मानस की बू से
तगड़ा वाला झोल ये क्यूँ है
हर सुन्दर सी बाला का एक
मोटा तगड़ा भाई क्यूँ है

साइकिल की हर एक तिल्ली का
मेरे वेग से रिश्ता क्यूँ है
गइया के पञ्च गव्य का
पूजा प्रसाद में भोग ही क्यूँ है

अब
बीस साल बाद
ये सारे क्यूँ छूट गए पीछे

अब एक आता है
बार बार

प्यार की बात
मन से सरक कर
हर बार तन पे अटकती क्यूँ है

हर मतलब की डोर सुनहली
तुम पर आकर रुकती क्यूँ है

तेरी सोच बड़ी अलबेली
बिस्तर पर ही सोती क्यूँ है

Wednesday, March 21, 2012

खुदगर्ज़ी

इससे पहले
की इक दफा फिर से तुम मुझे दफ्न कर दो
अपनी बेबाक भूलने की आदत में

फिर मैं
बेमुरव्वत
मुसलस दौड़ता रहूँ
खुद को पाने की हसरत में
बदहवास, ता ज़िन्दगी
क़यामत तक

इससे पहले
कि फिर अँधेरा छा जाए
नूह कि कश्ती में सारा जहाँ सिमट जाए
नस्ल दर नस्ल के सपने हवा में खो जाएँ

मुझको इक बार खुद में खो जाने दो
तुम
बस रहना मेरी धमनियों में
कुछ वैसे ही जैसे कि मेरा खून
बस चुप चाप
बहना
बस रहना
गर्म खून सा बनके
मेरे अन्दर
बिना चिपके
और बिना अलग हुए

तुम्हारा भूलना
चिपकना
मुझे दफनाता है
भगाता है
तड़पाता है, क़यामत तक ...
नूह कि कश्ती तक भी

हाँ, ये खुदगर्जी है
तो क्या हुआ
हम भी कोई खुदा तो नहीं