हे भारत के जन मानस
प्रभु के सबसे प्रिय बालक
हे निति धर्म के प्रखर दीप
हे पुण्य कर्म ध्वज के वाहक
हे राष्ट्र प्रेम के प्रखर तेज
तुम क्यूँ रूठे हो नैतिकता से
अपने अन्दर के नर पिशाच
क्यूँ ढक लेते हो सज्जनता से
आ जाओ कभी आवरण उतार
दिखलाओ अपने दन्त विकराल
कभी सत्य का पान कर
उन्नत कर लो काजल सा भाल
एक बार तो बतलाओ
तुमसे न बड़ा कोई घातक
कोई और नहीं बस तू ही है
इस भारत कुल का घालक
तू मिथ्याभाषी, व्यभिचारी, अत्याचारी तुम ही अरे !
ये भीख,
कटोरे में तुझको "इमानदारी" की क्यूँ चाहिए
तू जाग जरा, सुन अपना मानस
क्या धरा है औरों की बातों में
प्रसव वेदना को सह कर जब
इस जीवन को तू जी पाया
जननी से सीखा अमर प्रेम
फिर तू समाज में चल पाया
दर्द जनित हर क्रंदन को इस दुनिया में तू ले आया
हर बार दर्द के बदले में तुने निश्छल एक मन पाया
क्या सह ना सकेगा अरे कभी तू पीर कभी सच्चाई की?
और भला क्या देगा तू बदले में पीर पराये की
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