Friday, November 19, 2021

ससम्मान

 


आतंकवादी बुलाया 

खालिस्तानी कहा

देशद्रोही बनाया 

कंटीले तार 

नुकीले लोहे 

ठंढे बदबूदार पानी 

से लोकतंत्र की आड़ में बजबजाती तानाशाही बचाते 

तुमने मारे कितने यार हमारे 

रास्ता रोका 

गाड़ियों से कुचला 

अपनी ताकत की सनक में 

लेकिन 

हमें याद था 

उस बुड्ढे का सिखाया 

हाँ वो ही बुड्ढा 

जिसका हत्यारा तुम्हारा अभिमान है 

बुड्ढे ने सिखाया था 

हिंसा कमजोर का हथियार है 

हम उसी सीख पर कायम हैं और रहेंगे 

तुम्हारे सितम की इंतेहा तक 

जो कि हमारी रोजमर्रा की जद्दोजहद के आगे फीकी है 

कहते रहेंगे अपनी बात 

यही है तुम्हारी वापसी का फरमान 

बिना तुम्हारे तरीके अपनाए 

भेजेंगे वापस तुम्हें 

ससम्मान 

"कर्ता- ने" "कर्म-को"



सालों पहले पारसाई जी को पढ़ा था, उनकी हर बात सच लगाती है। इतने दंगो को देखने और सम्बंधित रिपोर्टों को पढ़ने के बाद ये मालूम हुआ है की दंगों के मुख्य कारण (हिंदी व्याकरण के हिसाब से, आपने "कर्ता- ने" "कर्म-को" वाला सूत्र तो याद किया ही होगा) लगभग निश्चित हो जाता है। नीचे कारन सूची लिखी है, पिछले साठ - सत्तर साल से ज्यों की त्यों है:

१ सभी धार्मिक स्थल
२ जानवर
३ इंसानी मादा
४ जमीन और जायदाद
५ धर्म
६ धंधा

अगर आप सूची को ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे की सारी चीजें पुरुष के प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए हैं। यह जानवरों में श्रेष्ठतम नर को समूह की सारी मादाओं से सम्भोग और समूह के चरने की सीमा क्षेत्र पर आधिपत्य ज़माने की निशानियों की तरह मात्र है।

जयराम रमेश जी ने पिछले कुछ समय में पाखाने के महत्व पर बहुत प्रकाश (करात नहीं) डाला। तब से इस सोच में डुबता उतराता फिरता हूँ कि पाखाना इन्सान के लिए इतना जरूरी है, फिर भी ऐसा क्यूँ है कि हाजत और पाखाने के मसले पर कभी कोई दंगा ना हुआ। परन्तु, अगर हो जाता तो शायद अखिल विश्व में पहली बार एक नैसर्गिक, स्वतःस्फूर्त विषय "कारण" बनता दंगे का, जिसे इंसान ने नहीं बनाया, (पाखाने की हाजत), जो उसके नियंत्रण के बाहर है।

अगर लोग इस मसले पर दंगों को करने की तैयारी करते तो कैसे बातें करते, एक मनगढ़ंत बानगी देखिये:

सांप्रदायिक व्यक्ति: “सुना है फलाने (धर्म का नाम अपनी रूचि के अनुसार लगा लें) लोग हाजत के समय भांग बूटी छानकर पीते हैं, और सटाक से फ़ारिग हो जाते हैं  

समाजवादी व्यक्ति:  “ इसी वजह से व्यापार को ध्यान में रख कर हमने तो आपके समाज में भांग बूटी के प्रयोग को अधरम से जुडवा दिया था
सेक्युलर व्यक्ति: "धरम के बीच में आ जाने से काला बाजारी हो तो रही है पर कुछ लोग अधार्मिक होते जा रहे हैं, वो खुद से भंग बूटी उगा रहे हैं  .”

Monday, November 15, 2021

वालिद की वफ़ात पर


तुम्हारी क़ब्र पर

मैं फ़ातिहा पढ़ने नहीं आया

मुझे मालूम था

तुम मर नहीं सकते

तुम्हारी मौत की सच्ची ख़बर जिस ने उड़ाई थी

वो झूटा था

वो तुम कब थे

कोई सूखा हुआ पत्ता हवा से मिल के टूटा था

मिरी आँखें

तुम्हारे मंज़रों में क़ैद हैं अब तक

मैं जो भी देखता हूँ

सोचता हूँ

वो वही है

जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी

कहीं कुछ भी नहीं बदला

तुम्हारे हाथ मेरी उँगलियों में साँस लेते हैं

मैं लिखने के लिए

जब भी क़लम काग़ज़ उठाता हूँ

तुम्हें बैठा हुआ मैं अपनी ही कुर्सी में पाता हूँ

बदन में मेरे जितना भी लहू है

वो तुम्हारी

लग़्ज़िशों नाकामियों के साथ बहता है

मिरी आवाज़ में छुप कर

तुम्हारा ज़ेहन रहता है

मिरी बीमारियों में तुम

मिरी लाचारियों में तुम

तुम्हारी क़ब्र पर जिस ने तुम्हारा नाम लिखा है

वो झूटा है

तुम्हारी क़ब्र में मैं दफ़्न हूँ

तुम मुझ में ज़िंदा हो

कभी फ़ुर्सत मिले तो फ़ातिहा पढ़ने चले आना

- निदा फ़ाज़ली