गणतन्त्र की दहलीज़
चमकते पत्थरों की
जिस पर
भूख की परछाईं भी थर थराती है
रक्त अपना रंग खो देता है
बचपन तिरंगे बेचकर
भविष्य रफ़ू करता है
और मुश्ताक़ अली अंसारी ६ दिसम्बर १९९२ से
मुस्लिम मुहल्ले की गलियों से बचकर निकलते हैं
क्या करें वो
पूरे हिन्दू लगते हैं
भूख
ख़ून
इन्सानियत को थर्रा देने वाली
गणतन्त्र की दहलीज़
बिछ जाती है
धर्म के आगे
चमकते पत्थरों की
जिस पर
भूख की परछाईं भी थर थराती है
रक्त अपना रंग खो देता है
बचपन तिरंगे बेचकर
भविष्य रफ़ू करता है
और मुश्ताक़ अली अंसारी ६ दिसम्बर १९९२ से
मुस्लिम मुहल्ले की गलियों से बचकर निकलते हैं
क्या करें वो
पूरे हिन्दू लगते हैं
भूख
ख़ून
इन्सानियत को थर्रा देने वाली
गणतन्त्र की दहलीज़
बिछ जाती है
धर्म के आगे