Tuesday, September 7, 2010

गच्च गच्च आत्मा



आज सब्ज़ी की खरीद फरोख्त में टमाटरों के रेहड़ी वाले से टकरा गया. अद्भुत, अविस्मर्णीय था आनन्द जो बारिश के साथ छन छन कर कानों पर गिरा. "अरे अभी एक गिराहक आया था, बोला भाई तरी वाली सब्जी के लिए टमाटर चाहिए बढ़िया वाले वो भी चालीस किलो. राम कसम मेरी तो आत्मा ही गच्च गच्च हो गयी ". हमने भी सुर मिलाया इस आत्मा की गच्चता में की "आज के आनन्द की जय हो".

तो बात थी आत्मा की
जो की बीसवीं सदीं में
होर्डिंग्स के होड़ में
जूतों के जोड़ में
अंग वस्त्रों की गाँठ में
बन्दूक की नाल में
तबलों की ताल में
जवानी की अंगड़ाई में
सड़क पर उगी खाई में
दिन के अंधेरों में
और रात के उजालों में
उपलब्ध है - आपके शहर में
मेरी आत्मा - गच्च गच्च आत्मा

आपके शहर में
एक पर एक या फिर एक के साथ दो
या फिर किसी और के साथ
बिना किसी जज़्बात
दिन हो या रात
लुटने को
नहीं नहीं - लूटने को उपलब्ध है
मेरी आत्मा -- गच्च गच्च आत्मा

2 comments:

Anonymous said...

जय हो .. जय हो ..

Isha Pant said...

Awesome!!