Wednesday, September 15, 2010

अब जब की तुम हो... पर नहीं हो



उफ़ ये दिल्ली,
ना तो शाम, ना ही रात;
चारों तरफ बस बिजली के लट्टू |
खो गई है रात,
इनके बीच
चाँद भी शायद
अब वो आशिक-ए-लैला को
मयस्सर नहीं
कोई सितारा
गिरेगा मेरी आँखों के कोटरों में
जब वो आखिरी बार बंद होंगी, तभी शायद
तब तक क्या करूँ?
ना तो दिल्ली की दीवारों में
अब
ना तो ग़ालिबन खिड़की है
ना ही कोई खुदाई
सांस लेने भर से आती है उबकाई
कहाँ गयी वो मुग़ल गार्डेन के फूलों की ख़ुश्बू?
शायद
एक्स्ट्रा प्रीमियम ने बहर दी है उनकी जगह
शाम --
रात के इंतज़ार में
लेकिन
रात से पहले ही बीती
ऐसा क्यों कर हुआ...???
सब कुछ ऐसा बदला
दिन सूरज का न रहा
चंदा की चांदनी नई नस्ल ने नहीं देखी
कितनी मुश्किल है
एक आशिक के लिए दिल्ली की ज़िन्दगी
चाँद दिखे तो ना...
तुम कैसे दिखोगे...?
नेटवर्क में कंजेशन के कारण...
कैसे बात करूँ?..
ग़ालिब
काश
आज की दिल्ली तुम्हें नसीब होती 
देखता मैं भी तुम्हारी जादूगरी
अपने आपको आधा हिन्दू, आधा मुसलमान
क्यूंकि
रोक दिए जाते जरूरतों के तंग दायरे में ---
एक चाँद
तारे
एक रात
चांदनी
हवा
थोड़ा सा सन्नाटा
एक कोई अपना |
सबसे महरूम
फिर भी एक आस बची है कि
शायद बत्ती गुल होगी
स्ट्रीट लाइटें भी अँधेरे में खो जायेंगी
तब
शायद
मैं
तुम
या फिर हम
मिलेंगे चांदनी के दोनों किनारों पर
और अचानक
साड़ी मोटरें और जेनेरेटर बंद होंगे
या खिदा
ये ख्वाहिशे आशिक
तेरी रहमत में तब्दील हो
आमीन..
कौन कहता है कि ग़ालिब अब कभी पैदा नहीं होगा
हुज़ूर - बिना चांदनी के भी चाँद
टहलता है आसमान में
आज देख भी लिया
सच है
ग़ालिब फिर नहीं पैदा होगा ||

4 comments:

Shalini said...

very good...

Anonymous said...

"the fire of pain traces for my soul, a luminious path across her sorrow" .. Keep it up boy! Going great!

tinni said...

Very nice!!

Isha Pant said...

Chaand ki roshni agar gharon ke bheetar aana bhi chahe toh hum parde laga kar khidkiyaan bund kar lete hain taaki log laal bulbon se roshan humare kamron ko dekh na sakein...

ur writing is wonderful! I have never met someone who writes so well!