Sunday, October 17, 2010

तरक्की



जब गुन गुनी धुप आने लगती है हर सुबह -
याद आती है धुएं से भरी गाँव की सरहद
सब कुछ ढका, छुपा सा
परिचित सा अपरिचित
एक दम नए सा वो सब जो था पुराना
मजीरों और झाल के रंग में रंगा
अपने पन से पगा
हुक्के का धुंआ
कौड़े का ताप
देता था दस्तक, एक मौसम त्योहारों का
न बिजली के लट्टू
ना टेप रेकॉर्डर का शोर
ना डी जे की सर्विस
ना टैलेंट शो का जोर
बैलों की घंटियों से झरता संगीत था
पैकेज्ड ड्रिंकिंग वाटर का कोई ना ठौर था
हर उम्र के पास अपना एक रंग था
पूर्ण था
उन्मत्त था
जीवन था
तरक्की हमने इतनी कर ली कि
आज
ह़र मोड़ पर
दिखता है
अधूरापन तमाम

9 comments:

Patali-The-Village said...

सही लिखा है आपने|

Anonymous said...

बहुत ही सुन्दर रचना है.बधाई....इसी तरह लिखते रहिये...

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

nice.narayan narayan

Raj said...

बहुत अच्छे

Dr.Aditya Kumar said...

तरक्की हमने इतनी कर ली कि
आज
ह़र मोड़ पर
दिखता है
अधूरापन तमाम
sahi kaha

संगीता पुरी said...

इस सुंदर नए से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

Om Abhay Narayan Rai said...

हौसला अफज़ाई का शुक्रिया...

tinni said...

very good one....very well said....congrats for gr8 writing...:-)

Isha Pant said...

U need to get all this published! It is almost criminal to keep the rest of the world away from such great creations. Not everyone in our part of the world can access net.