२००१ की सर्दियों और मेरे मुफलिसी के दिनों में नेशनल मुजियम के सामने वाली चाय की दूकान पर - अपने प्रिय मित्र पांडे जी की कृपा से एक और योद्धा से मुलाकात हुई | साहब संस्कृति की दूकान में जज्बात के पानी डालते थे | एक दिन चार्म्स सिगरेट ने मुझे "संसप्तक" से मुलाकात का मौका दिया, बात दीगर है की बहाना, जनाब अंजन बाबु बने | मछलियों की खुशबु और हॉट रोल की महक के बीच से गुजर कर पहुंचे एक कमरे के स्कूल में | इसमें बस एक बल्ब था, बस बहुत कुछ "सत्या" के अड्डे जैसा जिसके सर पे एक कवर था, बेचारा बल्ब धुंए और बौद्धिक प्रकाश से दब कर अँधेरा बन गया था | पता चला की कुछ और लोग भी हैं इस दुनिया में जो अपने दो रूम वाले फ़्लैट और क्यूबिकल जिंदगी के बाहर आ कर अपनी जड़ें दूर, गहरे - जमीन के अन्दर भेजना चाहते हैं | लगे हुए हैं लड़ने में, बड़े लोगों से, बासों से, आसपास की बेइंतेहा तेजी से जवान होती कोंक्रेट की इमारतों से, अपने आप से और तो और आखिरी सिगरेट से भी | और कमरे के अन्दर सारे के सारे खिलंदड़ बेफिक्र। बेपरवाह। अपने आप से बेखबर। सो कुल मिला के इस जद्दोजहा से बनी जिंदगी की दिवार में खिड़की रहती थी - दिखती किस्मत वालों को थी |
हमारे किराए के भी पैसे जब चुक गए तो हमने DTC से दोस्ती की ताकि ४९० की सवारी मुफ्त हो जाए | पर स्टेशन वाले दोस्त बदल गए ... और हमने जाना बंद किया | अंजन एक दिन आये और कहा - चल, सर ने बुलाया है | वहां जाने के बाद किसी ने सांस ना ली की भाई इतने दिन क्यूँ नहीं आये ? आते वक़्त दिल की धुक धुकि रेलगाड़ी बन गयी थी - क्यूंकि जेब में कौड़ी तो क्या सिगरेट भी नहीं थी की, पीते पीते हम मीना बाग़ लेन पहुचे | तभी किसी ने कंधे पर हाथ रखा, मुड़ के देखा तो देखा की तोरित सर खड़े हैं, कहा आना के लिए ये पास रख लो, और ये काम सभी बड़ों ने किया ... दिल ने मना किया तो ये कह के मुझे समझाया की तुम आओ इस लिए दे रहे हैं, और मैं आता रहा | तब तक जब तक दिल की सुनता रहा |
कुछ दिनों बाद पता चला की वो स्कूल अब पार्क बन गया है, हम सब बेघर हो गए - पर संसप्तक हारते नहीं, मरते नहीं, अजर होते हैं, वो रक्षा करते हैं, आत्मशुद्धि को बल देते हैं - अस्तु नाट्य जगत को हमेशा एक मोती मिलता रहा है | पिछले १८ सालों में कितने लोग इस लड़ाई का हिस्सा बने और आगे चल पड़े, परन्तु काम है की चलता रहा निर्बाध | कहते हैं यही दुनिया है। भारतीय दर्शन में आने-जाने की जगह है | लेकिन यह विदाई स्थूल की है। शरीर की। ज़ज्बे की नहीं | हौसले और भावना की नहीं। मौत बेबात का फसाना है। जिंदगी ही असल कहानी है | आज, संस्प्तक को जानते हुए मुझे दस साल हो गए, जैसे लगता है की कल ही मिला था अंजन से | अब भी वही जोश है | सलाम करता हूँ इस ज़ज्बे को, एक निवेदन के साथ कि "लड़ते रहिये" |
परसाई जी कि भाषा में:
केंचुए ने सदियों के अनुभव से सीखा है कि जिन्दगी का मजा बिना रीढ़ की हड्डी के ही उठाया जा सकता है | इसीलिए मैं आता रहा | इंसान से केंचुआ बन जाने तक | और बस |
संसप्तक से जुड़े तमाम लोगों को इंसान बने रहने के लिए धन्यवाद और बधाई |
अगर आपको इस ग्रुप के विषय में और जानकारी चाहिए तो नीचे लिखे वेब एड्रेस पर जाएँ:
http://www.sansaptaktheatre.com/
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