Thursday, March 22, 2012

क्यूँ

सालों तक ये पूछ पूछ कर
हमने सबको तड़पाया था

की रात क्यूँ काली
दिन क्यूँ गोरा
आस्मां में बादल क्यूँ हैं
चाँद हमारा मामा क्यूँ है

हर मतवाली मौसी क्यूँ है
हर खूसट अब बुआ जी क्यूँ है
हर मंगल पर दंगल क्यूँ है
दंगल ही का मंगल क्यूँ है

दनवा दूत का मानस की बू से
तगड़ा वाला झोल ये क्यूँ है
हर सुन्दर सी बाला का एक
मोटा तगड़ा भाई क्यूँ है

साइकिल की हर एक तिल्ली का
मेरे वेग से रिश्ता क्यूँ है
गइया के पञ्च गव्य का
पूजा प्रसाद में भोग ही क्यूँ है

अब
बीस साल बाद
ये सारे क्यूँ छूट गए पीछे

अब एक आता है
बार बार

प्यार की बात
मन से सरक कर
हर बार तन पे अटकती क्यूँ है

हर मतलब की डोर सुनहली
तुम पर आकर रुकती क्यूँ है

तेरी सोच बड़ी अलबेली
बिस्तर पर ही सोती क्यूँ है

4 comments:

daljit said...

इतनी साधारण से दिखने वाले शब्द क्यूँ पर इतनी सुन्दर मनभावन कविता लिखने के लिए ॐ जी हम आपके आभारी हैं ..मुझे तो ये बेहद पसंद आयी..

Manish Kumar said...

"प्यार की बात
मन से सरक कर
हर बार तन पे अटकती क्यूँ है"



बहुत ही उम्दा सर जी !
भगवान आपकी लेखनी की स्याही को बरक्कत दें I

Shruti Awasthi said...

Superb esp the depiction of love ... Platonic vs physical . Mind blowing!

Shruti Awasthi said...
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