गणतन्त्र की दहलीज़
चमकते पत्थरों की
जिस पर
भूख की परछाईं भी थर थराती है
रक्त अपना रंग खो देता है
बचपन तिरंगे बेचकर
भविष्य रफ़ू करता है
और मुश्ताक़ अली अंसारी ६ दिसम्बर १९९२ से
मुस्लिम मुहल्ले की गलियों से बचकर निकलते हैं
क्या करें वो
पूरे हिन्दू लगते हैं
भूख
ख़ून
इन्सानियत को थर्रा देने वाली
गणतन्त्र की दहलीज़
बिछ जाती है
धर्म के आगे
चमकते पत्थरों की
जिस पर
भूख की परछाईं भी थर थराती है
रक्त अपना रंग खो देता है
बचपन तिरंगे बेचकर
भविष्य रफ़ू करता है
और मुश्ताक़ अली अंसारी ६ दिसम्बर १९९२ से
मुस्लिम मुहल्ले की गलियों से बचकर निकलते हैं
क्या करें वो
पूरे हिन्दू लगते हैं
भूख
ख़ून
इन्सानियत को थर्रा देने वाली
गणतन्त्र की दहलीज़
बिछ जाती है
धर्म के आगे
7 comments:
आपने लिखा...
और हमने पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 27/01/2016 को...
पांच लिंकों का आनंद पर लिंक की जा रही है...
आप भी आयीेगा...
Shukriya Kuldeep ji, I have a few more poems up on today. Appreciate your kind words
सुंदर रचना|
बहुत बढ़िया रचना
आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!
शुक्रिया कविता जी
आशीर्वाद और स्नेह बनाये रखें
आपको जन्मदिन के साथ ही गुड़ी पड़वा- चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की हार्दिक शुभकामनाएं
धन्यवाद कविता जी| गाँव गया हुआ था इसलिए समय से देख नहीं पाया था| क्षमा कीजियेगा
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